सूक्ष्म इतिहासवाद-दार्शनिक इतिहासवाद?

मजहबवाद, क्षेत्रवाद,भाषावाद आदि से निकल कर यदि हम हर देश/क्षेत्र को दर्शन के आधार पर समझें, आध्यत्म के आधार पर समझे तो सब एक है।जैसे कि तुर पर्वत?!तुर शब्द दिव्यता के लिए प्रतीक हुए है। जहां हजरत मूसा को दिव्य प्रकाश महसूस हुआ।वहां अनेक सूफी संतों ने साधनाए कीं। ययाति पुत्र तुर बसु इसी का प्रतीक है। हम बसु शब्द पर भी जाते हैं।बसु शब्द समाधि या एक प्रकार की बेहोशी का प्रतीक है जिसमें व्यक्ति दुनिया की नजर में बेहोशी हालत में रहता है लेकिन वह एक दिव्य या प्राकृतिक या अनन्त व्यवस्था के तहत रहता है, शासन के अनु... अनु शासन में रहता है।

इसी तरह अमेरिका की माया या माय या मायन सभ्यता?!संगम साहित्य में एक माया असुर का जिक्र है। वास्तु व इमारत निर्माण पर जिसकी एक पुस्तक भी मिलती है। हम अनेक बार कह चुके हैं कि दक्षिणी गोलार्ध जिसमें चाहें दक्षिण अमेरिका हो या दक्षिण अफ्रीका या दक्षिण भारत या जावा सुमात्रा, इंडोनेशिया आदि या आस्ट्रेलिया आदि सब मे हमे सूक्ष्म जगत में सब एक ही दिखता है। इसी तरह उत्तरी गोलार्ध में भी। हमें इसके लिए गीता का विराट रूप भी यहां पर नजर में रखना है।

हम अनेक बार कह चुके हैं कि हमें विश्व की सभी सभ्यताएं एक दर्शन से बंधी दिखती हैं।सूक्ष्म रूप से आपस में बंधी दिखती है।आज कल भी तमाम विश्व देश,क्षेत्र, कबीले, समूह आदि हमें अलग अलग दिखते है लेकिन वे परस्पर एक से जुड़े है। दरअसल हम सब ऊपरी ऊपरी किसी का अध्ययन सिर्फ भौतिक मूल्यों, भाषा, रीति रिवाज, वेश भूषा, खान पान ,आचरण आदि के आधार पर सिर्फ करते हैं।लेकिन हम इससे आगे नहीं बढ़ पाते। 

सूक्ष्म जगत या आध्यत्म में जगत का एक कण हो या कोई ग्रह या जीव जंतु आदिआदि सब का सब एक पूर्ण सिस्टम का हिस्सा है।  प्रकृति, भौगोलोक, स्थूल आदि विविधता के बाबजूद कुछ है जो सबको बंधे है।विभिन्न स्तरों, प्रकृति विभिन्न, कृत्रिम विभिन्नता ओं आदि के कारण सब अलग अलग दिखता है लेकिन एक दशा ऐसी है जो सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर की दशा है,बसुधैव कुटुम्बकम की दशा है। हमारा व जगत का अल/आल/पूर्णत्व/योग आदि स्थूल+सूक्ष्म+कारण के योग से बनता है। हम अभी स्थूल के लिए नैसर्गिक अभियान के यथार्थ से नहीं जुड़े हैं, हम कृत्रिमताओं, समूहों, जातियों,भाषाओं आदि की सीमाओं में अपने को बांधे है। 

वेद दशा क्या है? जो आदि ऋषियों ,नबियों को दिखी वह यहीं की ओर संकेत करती है।ऐसे में चाहें यूरोप के सन्त हो या अरब के या भारत के या अमेरिका आदि के सब के सब इसी की तलाश में थे। गलत तो तब हुआ जब धर्म, दर्शन, आध्यत्म, सन्त परम्परा का मजहबी करण  हो गया ।जग हम विभिन्न देशों,मजहबों, कबीलों का दार्शनिक इतिहासवाद के आधार पर अध्ययन करते हैं तो सब एक ही लगता है। कुछ भी अलग नहीं है।जैसे कि हम कुतुब को लेते हैं, कुतुब का मतलब वह नायक  हैजो दिव्यता से भरा है और बसु में भी है। सिंधु के उस पार उलेमाओं, गुरुओं, ब्राह्मणों ,शेखों(गुरु ही) आदि के राज राजनैतिक प्रभाव का भी जिक्र मिलता है।उत्तरभारत व दक्षिण भारत,साइबेरिया, कोरिया, कुर्मांचल आदि में ऐसा नहीं मिलता है ।अमेरिका,यूरोप,तुर्क/अनातोलिया,भूमध्य सागरीय क्षेत्रों, कृष्ण सागर  आदि क्षेत्र में ओर्ब/अरब, दक्षिण भारत के आर्यों का वहां जाकर शासन स्थापित करने के पुरातत्विक प्रमाण मिलते है। एनिबेसेन्ट ने कहा है कि भारतीय पुराण हों या कहीं अन्य देशों के पुराण विभिन्न कल्पनाओं ,अतिशयोक्ति आदि के माध्यम से इस ओर संकेत करते है। ओशो ने कहा है ग्रन्थों को पढ़ा तो जा रहा है लेकिन उस पर वो कार्य नहीं हो पा रहा है जो किसी वेबसाइड पर हम कार्य करते हैं उसका पासवर्ड पा कर। हमें पासवर्ड तो वेद की दशा, बेहोशी या  समाधि की दशा या ऋषि नबियों की परम्परा से ही प्राप्त होगा।
आत्म ज्ञान अर्थात योग/अल/इला (स्थूल+सूक्ष्म+कारण)तीनों पर सम दृष्टि से प्राप्त होगा।

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